CTET Class 6 - पियाजे ,कोलबर्ग और वायगोट्स्की : निर्माण और विवेचित संदर्श

पियाजे ,कोलबर्ग और वायगोट्स्की : निर्माण और विवेचित संदर्श
विकास की अवस्थाओं से संबंधित सिद्धांतों में जीन पियाजे ,लॉरेन्स ,कोह्यबर्ग एवं वायगोट्स्की नामक मनोवैज्ञानिकों द्वारा प्रदत्त सिद्धांत विशेष रूप से उल्लेखनीय है ।-


जिन प्याजे के संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत-
● जीन प्याजे स्विजरलैंड के एक मनोवैज्ञानिक थे, उन्होंने बालकों में बुद्धि के विकास के ढंग को समझने के लिए स्वयं अपने बच्चों को अपनी खोज का विषय बनाया । बच्चे जैसे-जैसे बड़े होते गए उनकी मानसिक विकास संबंधी क्रियाओं का अध्ययन करते रहे । जिसके परिणाम स्वरुप उन्होंने मानसिक या संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत का प्रतिपादन किया ।
● संज्ञानात्मक विकास का अर्थ बच्चों के सीखने और सूचनाएँ एकत्रित करने के तरीके
से है इसमें अवधान में वृद्धि प्रत्यक्षीकरण, भाषा, चिंतन, स्मरण शक्ति तथा तर्क शक्ति शामिल है ।
● संज्ञानात्मक सिद्धांत के अनुसार, वह प्रक्रिया जिसके द्वारा संज्ञानात्मक संरचना को संशोधित किया जाता
है, समावेशन कहलाती हैं ।
● बच्चों में बुद्धि का विकास उनके जन्म के साथ जुड़ा होता है, जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता जाता
है, उसकी बौद्धिक क्रियाओं का दायरा बढ़ जाता है ।


● पियाजे ने बालकों में वृद्धि के विकास को चार अवस्था में विभाजित किया है -




















लॉरेंस कोह्यबर्ग का नैतिक विकास की अवस्था का सिद्धांत - 
बालकों में चरित्र निर्माण या नैतिक विकास के संदर्भ में लॉरेंस कोह्यबर्ग ने अनुसंधानों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला की बालको में नैतिकता या चरित्र के विकास की कुल निश्चित एवं सर्वभौमिक स्तर अथवा अवस्थाएं पाई जाती हैं ये व्यवस्था निम्न है -
• पूर्व नैतिक स्तर [ 4-10 वर्ष]
• परंपरागत नैतिक स्तर [ 10-13 वर्ष]
• आत्म अंगीकृत नैतिक मूल्य स्तर [ 13 वर्ष से प्रौढ़ावस्था तक]

कोहल बर्ग द्वारा प्रदत्त इस प्रकार के वर्गीकरण को कुछ और आगे बढ़ाने का प्रयत्न किया जाए, तो निम्न प्रकार के वर्गीकरण द्वारा बालकों के नैतिक या चारित्रिक विकास की पांच प्रमुख स्तर या अवस्थाएं की जा सकती है -
1.       पूर्व नैतिक अवस्था
2.       स्वकेंद्रित अवस्था
3.       परंपराओं को धारण करने वाली अवस्था
4.       आधारहीन आत्म चेतना अवस्था
5.       आधारयुक्त आत्म चेतना अवस्था

1. पूर्व नैतिक अवस्था-
● यह अवस्था जन्म से लेकर 2 वर्ष की आयु तक होती है ।
● इस अवस्था में बालक से किसी प्रकार की नैतिकता या चारित्रिक मूल्यों को धारण करने की बात ही नहीं उठती, क्योंकि इस स्तर पर उसे यह समझ नहीं होती कि उसके ऐसा करने से किसी अन्य को नुकसान या परेशानी होगी । क्या अच्छा है, क्या बुरा है, यह बात उसकी समझ से बाहर होता है।


2. स्व केंद्रित अवस्था- 
इस अवस्था का कार्यकाल तीसरे वर्ष से शुरू होकर 6 वर्ष तक होता है ।
इस अवस्था के बालक की सभी व्यवहारिक क्रियाएं अपनी वैयक्तिक आवश्यकताओं और इच्छाओं की पूर्ति के चारों ओर केंद्रित रहती है ।

3. परंपराओं को धारण करने वाली अवस्था-  
7 वें वर्ष से लेकर किशोरावस्था के प्रारम्भिक काल का सम्बन्ध इस अवस्था से है ।
इस अवस्था का बालक सामाजिकता के गुणों को धारण करता हुआ देखा जाता है । इस अवस्था में बालकों को अच्छाई बुराई का ज्ञान हो जाता है ।

4. आधारहीन आत्मचेतना अवस्था
यह अवस्था किशोरावस्था से जुड़ी है ।
● इस अवस्था में बालकों का सामाजिक, शारीरिक तथा मानसिक विकास अपनी ऊंचाइयों को छूने लगता है, और उसमें आत्मविश्वास का प्रादुर्भाव हो जाता है ।
●पूर्णता की चाह उसमे स्वयं से असंतुष्ट रहने का मार्ग प्रशस्त कर देती है । यही असंतुष्टि उसे समाज का परिवेश में जो गलत हो रहा
है, उसे बदल डालने या परंपराओं के प्रति विद्रोह रुख अपनाने का उकसाती है ।

5. आधारयुक्त आत्मचेतना अवस्था- 
नैतिक या चारित्रिक विकास की यह चरम अवस्था है। भली-भांति परिपक्वता ग्रहण करने के बाद ही इस प्रकार का विकास संभव है ।


वाइगोत्स्की के सामाजिक विकास का सिद्धांत-  
● सोवियत रूस के मनोवैज्ञानिक लेव वाइगोत्स्की ने बालकों में सामाजिक विकास से संबंधित सिद्धांत का प्रतिपादन किया व बताया कि बालक में हर प्रकार के विकास में उसके समाज का विशेष योगदान होता है ।
●उन्होंने बताया कि समाज में अंतः क्रिया के फलस्वरुप ही उसमें विभिन्न प्रकार का विकास होता है । यदि उसे सभी प्रकार की सुविधाएँ उपलब्ध होंगी तो
उसका विकास उत्तम होगा , यदि उसे सभी प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध नहीं होगी तो उसका उसके विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा ।
●जन्म के समय शिशु का व्यवहार सामाजिकता से काफी दूर होता है । वह अत्यधिक स्वार्थी होता है।
●बाल्यावस्था में प्रवेश करने के साथ-साथ अधिकांश बच्चे विद्यालय में जाना प्रारंभ कर देते हैं ,और अब उनका सामाजिक दायरा बहुत विस्तृत बनता चला जाता है ।
●बाल्यावस्था के बाद किशोरावस्था में संवेगों की तीव्र अभिव्यक्ति होती है । इस अवस्था में विशिष्ट रुचियों और सामाजिक संपर्क का क्षेत्र  भी अत्यधिक विस्तृत होता है ।
●वाईगोत्सकी के सामाजिक विकास के सिद्धांत का निहितार्थ है ,सहयोगात्मक समस्या-समाधान अर्थात् बच्चे अपने शिक्षक के निर्देशानुसार अपने साथियों
की सहायता से उन समस्याओं का समाधान कर पाते हैं जिन्हें उन्होंने पहले अपनी कक्षा में देखा है। इसमें वे अपने साथियों के साथ अंतःक्रिया करते हैं एवं अपने निर्णय पर पहुंचते है, शिक्षक का कार्य केवल निर्देश देना होता हैं ।

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